हरियाणा प्रान्त के 21 जिलों में से एक जिला महेन्द्रगढ का मुख्यालय नारनौल नगर में है । नारनौल एक प्राचीन एवं ऐतिहासिक महत्व का शहर है। आरम्भ में इस शहर को आर्चिक पर्वत (वर्तमान में प्रचलित नाम ढोसी की पहाडी) पर्वत की गोद में जोगी सम्प्रदाय द्वारा बसाया गया था जो कि अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिये समाज में उच्च स्थान तथा मान सम्मान प्राप्त थे । आरम्भ में यहां चारों तरफ घना जंगल था जिसमें आयुर्वेदिक जडी बुटियों की भरमार थी । नारनौल नगर की आयु का इतिहास में कोई स्पष्ट प्रमाण नही है मगर ऐसी मान्यता है तथा उदाहरण भी मिलते हैं कि यह नगर वैदिक कालीन है । नारनौल नगर के नामकरण के पीछे तीन मान्यतायें प्रचलित हैं :-
1 नाहर-नौल नाहर का अर्थ शेर और नौल का अर्थ ढहर है। इस का तात्पर्य है शेरों का ढहर क्यों कि इस क्षेत्र में पुराने समय में बहुत अधिक संख्या में शेर विचरण करते थे ।
2 नार-नवल स्थानिय भाषा में नार का तात्पर्य स्त्री तथा नवल यानि सुन्दरता से है। ऐसा माना जाता है कि इस नगर में सुन्दर स्त्रीयां निवास करती थी ।
3 नाग-नेवल यह कहा जाता है कि जब इस नगर की स्थापना द्याुरू हुई तो इस स्थान पर एक नाग (सर्प) और एक नेवला लडते हुये पाये गये जिससे इसका नाम नाग और नेवला के कारण नाग नेवल होकर बाद में नारनौल नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान स्थान पर नारनौल नगर की स्थापना से पूर्व यह नगर प्रसिद्ध पावन ढोसी तीर्थ की तलहटी में बसा हुआ था । मगर अपरिहार्य कारन वश वहां से उजडने के बाद इस नगर की स्थापना नन्दी ग्राम के अवशेषो पर मण्डेरी पहाडी के पास राजा नूनकरण द्वारा की गई थी । सार्वजनिक रूप से यह भी एक धारणा है कि वर्तमान स्थान पर नारनौल नगर की स्थापना के समय तत्कालीन राजा नूनकरण द्वारा अपनी पत्नी नारी नवल के नाम पर इस नगर का नाम नारनौल रखा था । महाभारत काल में इस क्षेत्र को परगना के रूप नर राष्ट्र के नाम से जाना जाता था ।
नारनौल तथा आसपास के तीर्थ एवं दर्शनीय स्थल :
महर्षि च्वयन आश्रम एवं ढौसी तीर्थ :
यूं तो ढोसी पर्वत व उसके आस पास का क्षेत्र वैदिक काल से ही भारतीय सभ्यता के अवशेष जुटाये बैठा था और इस क्षेत्र में वैदिक काल में मानव गतिविधियों का एक विशेष इतिहास रहा है लेकिन राजपूत काल में इस पर निर्मित किले के कारण इसका इतिहास में विशेष महत्व था। राजपूताना के राजा नूनकरण ने इस किले का निर्माण करवाया और ११वीं शताब्दी में जब तत्कालीन राजा नूनकरण ने नारनौल पर आक्रमणकारी शाहविलायत खान (पठान सेना के कमांडर) से युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गये तब इस पर्वत पर बने हुये मंदिरों और अन्य भवनों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया और आज उन भवनों के अवशेष मात्र ही उपलब्ध हैं। वैदिक काल में ढ़ोसी को आर्चिक पर्वत के नाम से जाना जाता था। यह नारनौल नगर से सात किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा में ग्राम थाना, ढ़ोसी व कुलताजपुर के मध्य स्थित है। इस स्थान को इस क्षेत्र में एक तीर्थ के रूप में मान्यता प्राप्त है। इस पर्वत के शिखर पर लगभग २५० वर्षों से अधिक पुराना तथा दूसरा लगभग १०० वषोर्ं से अधिक पुराना मंदिर भी स्थित हैं। मुख्य मंदिर में भगवान कृष्ण, राधा, सुकन्या व महर्षि च्यवन की मूर्तियां स्थापित हैं। और इनके साथ अष्ट धातु की शेषशय्या पर लेटे हुए भगवान विष्णु की भी मूर्ती स्थापित है। इस मंदिर से कुछ दूरी पर एक गुफा स्थित है जिसमें महर्षि च्यवन तपस्या करते थे। ऐसा माना जाता है कि महर्षि च्यवन विशेष प्रकार की जड़ी बूटीयों का प्रयोग करते थे जो उस काल में इस पर्वत पर उबलब्ध थी जिससे उन्होंने दीर्घायू एवं स्वस्थ शरीर प्राप्त किया। इस जड़ी बूटी से तैयार किए गए औषधीय गुणोंवाले अवलेह को च्यवनप्राश के नाम से जाना जाता है, जिसे आज भी शक्तिवर्धक औषधी के रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार लगभग छः हजार वर्ष पूर्व च्यवनप्राश का पहली बार निर्माण इस क्षेत्र में हुआ। इसी पर्वत पर महर्षि च्यवन के पिता महर्षि भृगु ने भी तपस्या की थी और अपना आश्रम (दिप्तोदिक आश्रम) स्थापित किया था। महर्षि भृगु ने भृगु संहिता की भी रचना की जिसमें सम्पूर्ण पृथ्वी पर उत्पन्न प्रत्येक मानव के भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य की गणना की गई है और इसे ज्योतिष शास्त्र का आदि ग्रन्थ माना जाता है। इस पर्वत शिखर पर चन्द्रकूप नाम का एक तीर्थ है जो की प्राचीन युग से है। ऐसा माना जाता है कि सोमवती अमावस्या को इस चन्द्रकूप में परवी के कारण पानी ऊपर आता है जिसमें बहुत से औषधीय गुण होते हैं और इसमें इस पवित्र दिन स्नान करके लोग पुण्यलाभ तथा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करते हैं। यहां पर पुरूष एवं महिलाओं के स्नान लिए दो अलग-अलग कुंड के लिए बने हुए हैं। ढ़ोसी पर्वत के दक्षिणी क्षोर पर लगभग मध्य में शिवकुण्ड स्थापित है जिसमें एक प्राकृतिक झरना भी है। इसमें बारह महिनों पानी झरता रहता है। इस पानी में भी औषधिय गुण विद्यमान हैं। यह पानी दो कुण्डों में एकत्रित होता है, जो अलग-अलग स्त्री एवं पुरूषों के स्नान हेतु बने हुए हैं। इस तीर्थ स्थान को श्री श्री १००८ श्री श्रीनन्द ब्रह्मचारी जी ने वर्तमान रूप में विकसित किया है। यहां गंगा माता का मंदिर व शिवालय है। इसी शिवालय के नाम पर इसको शिवकुण्ड कहा जाता है। इस शिवकुण्ड पर ब्रह्मचारी जी महाराज ने संस्कृत पाठशाला की स्थापना की थी जिसके आचार्य पंड़ित मंगतूराम जी जोशी निवासी ग्राम डोहरकलां थे। यह संस्कृत विद्या का इस क्षेत्र का सबसे प्रसिद्ध संस्थान था, जिसमें क्षेत्र के प्रसिद्ध संत शिरोमणी बाबा रामेश्वर दास जी ने भी शिक्षा ग्रहण की थी। इसके दक्षिण पूर्व में पचतीर्थी नामक तीर्थ है, इस स्थान पर महात्मा श्री रामलाल जी ने तपस्या की थी। गौपाष्टमी के दिन इस तीर्थ पर अन्नाकुट बनता है। उस दिन हजारों लोग इस स्थान पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि वर्तमान स्थान पर बसने से पहले नारनौल नगर ढ़ोसी पर्वत की गोद में बसा हुआ था।
मंदिर चामुण्डा देवी मन्दिर:
चामुण्डा देवी नारनौल नगर के मध्य में मुण्डेरी पहाड़ी पर प्राचीन किले के द्वार के पास स्थित है। जब राजा नूनकरण ने नारनौल नगर की स्थापना की तो राठोड़ राजपूतों के पास यहां का नियन्त्रण रहा। राठौड राजपूतों की कुलदेवी माता चामुण्डा देवी के मंदिर का सबसे पहले निर्माण करवाया गया था। यह मंदिर नारनौल के प्राचीन किले के परिसर का ही एक भाग था। मुस्लिम शासकों ने अपने शासन काल में इस अस्सी स्तम्भ के भव्य मंदिर के कुछ भाग को तुड़वा कर इसके चारों तरफ दीवार बनवा कर उसके ऊपर जामा मस्जिद का निर्माण करवा दिया था। सन् 1947 में मस्जिद की एक दीवार के अकस्मात गिरने से इस मंदिर के अवशेष दिखाई दिए तो स्थानीय लोगों ने खुदाई करके इस मंदिर के अवशेषों को निकलवाया और इस मंदिर का पुर्ननिर्माण किया। वर्तमान में यह एक भव्य मंदिर है जिसमें काफी हिन्दु देवी देवताओं की मूर्तिया स्थापित है और यह एक दर्शनीय स्थल है और प्रतिदिन सैकड़ों लोग पूजा व देवी माँ के दर्शन हेतु यहां आते हैं। वर्तमान में इस मंदिर प्रांगण में अनेकों हिन्दू देवताओं की प्रतिमाएं भी स्थापित की हुई हैं।
बाबा रामेश्वर दास :
ग्राम ब्राह्मणवास नोह में भव्य मंदिरों के परिसर को बाबा रामेश्वर दास धाम कहा जाता है। यह धाम हरियाणा व राजस्थान राज्य की सीमा पर दोहान नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित है जहां श्री श्री 1008 श्री बाबा रामेश्वर दास जी ने तपस्या की थी। बाबा रामेश्वर दास के अनुयायी पूरे देश में बसे हुए हैं। हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश व उड़ीसा आदि राज्यों से लोग चल कर इस परिसर में पूजा अर्चना तथा मनौतियों के लिए आते रहते हैं। बाबा जी के ब्रह्मलीन हो जाने के उपरान्त भी प्रतिदिन हजारों श्रद्धालू इस मंदिर के दर्शन को आते हैं। बाबा रामेश्वर दास जी महाराज का जन्म जिला महेन्द्रगढ़ के ग्राम सिरोही बहाली तहसील नारनौल के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में ही इनके माता पिता का देहान्त हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण इनके ताऊ द्वारा किया गया था। विद्या अध्ययन के लिए वे ढ़ोसी पर्वत पर शिवकुण्ड स्थित श्री श्री 1008 श्री श्रीनन्द ब्रह्मचारी जी द्वारा संचालित संस्कृत पाठशाला में विद्याध्ययन हेतु आ गए थे। यह पाठशाला संस्कृत अध्ययन के लिए इस क्षेत्र का एक महान शिक्षा केन्द्र थी। विद्यार्थी जीवनकाल में ही बाबा रामेश्वर दास जी को वैराग्य हो जाने के कारण सन्त शिरोमणी श्री श्रीनन्द ब्रह्मचारी जी महाराज से दीक्षा लेकर इन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया और तदोपरान्त ये ग्राम कारोली तहसील नारनौल के मंदिर में पूजा अर्चना करने लग गए। कारोली से बाबा जी ग्राम बीगोपुर की सीमा में निर्जन क्षेत्र में तपस्या करने लगे। कुछ ही दिनों में वहां एक भव्य आश्रम का निर्माण करवाया, जहां प्रतिदिन सैकड़ों लोग इनके दर्शनों को आने लगे। एक दिन बाबा जी अचानक आश्रम से अर्न्तध्यान हो गए और कई वर्षों तक उनके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। फिर अचानक एक दिन वर्तमान रामेश्वर धाम के निर्जन स्थान पर एक तिबारे में तपस्या करते हुए पाए गए। उसके बाद क्षेत्र के हजारों लोग प्रतिदिन उनके दर्शनों को आने लगे और श्रद्धालुओं ने इस धाम के भव्य परिसर का निर्माण करवाया। इस मंदिर परिसर का निर्माण वर्ष 1963 से शुरू हुआ। बाबा जी की तरफ से चढ़ावे में रुपया पैसा चढ़ाने की सख्त मनाही थी मगर फिर भी यहां प्रतिदिन भोग प्रसाद का सदाव्रत लगा रहता था। ब्रह्मलीन होने से पूर्व बाबा जी ने अपने जीवन काल में ही एक ट्रस्ट का निर्माण करवा दिया था। मंदिर की देखरेख इस समय यह ट्रस्ट करता है। रामनवमी को इस धाम पर एक भव्य मेला लगता है। इस मंदिर प्रांगण में भगवान शिव के वाहन नन्दी की प्रतिमा 25 फुट लम्बी, 15 फुट ऊंची तथा 20 फुट चौड़ी स्थापित है। इसी मंदिर प्रांगण में 10 फुट ऊंचा शिवलिंग भी स्थापित है। मंदिर द्वार पर लगभग 40 फुट ऊंची हनुमान जी की प्रतिमा भी स्थापित है जो सम्भवतः उत्तरी भारत में अनुपम व बेजोड़ है। इस मंदिर परिसर के एक कक्ष में सम्पूर्ण गीता दीवारों पर अंकित करवाई हुई है तथा मंदिर परिसर में उत्तम किस्म की चित्रकारी भी की हुई है जिसमें हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों के अतिरिक्त हिन्दू पौराणिक गाथाओं को भी चित्रित किया हुआ है। इस मंदिर प्रांगण में पदार्पण करते ही व्यक्ति एक असीम आनन्द एवं मानसिक शांति की अनुभूति करता है।
पीर तुर्कमान (शाह विलायत खान) का मकबरा :
शाह विलायत खान मौहल्ला पीरआगा नारनौल में शेरशाह सूरी के दादा इब्राहिम खान सूर के मकबरे के दक्षिण में स्थित है। इसका निमार्ण पीर तुर्कमान की मृत्यू के डेढ़ सौ साल के बाद हसन खान मेवाती ने करवाया। इसके निर्माण में पठान शैली का प्रयोग किया गया है। समय-समय पर इसमें बाद के तत्कालीन नबाबों एवं प्रशासकों द्वारा निर्माण कार्य किया जाता रहा। अतः यह पठान काल से ब्रिटिश काल तक के निर्माण शैली का मिश्रित नमूना है। मकबरे के द्वार पर परशियन भाषा में लिखे शिलालेख में पीर तुर्कमान की मृत्यू का काल हिजरी सम्वत् 531 लिखा हुआ है। पीर तुर्कमान उर्फ शाह विलायत खान अजमेर के ख्वाजा मोईनुद्दीन चिस्ती का गुरु भाई था। यह हिन्दुस्तान में एक हाथ में रत्न व दूसरे हाथ में तलवार लेकर आया था। इसने तत्कालीन राजपूत राजाओं से युद्ध किए और इसी प्रकार के एक युद्ध में राजा नूनकरण के पुत्र के हाथों मारा गया। वह एक मुस्लिम धर्मोपदेशक एवं योद्धा था।
शेख सादी का मकबरा:
इस मकबरे का निर्माण लतफ उल्ला ने लगभग वर्ष 1634-35 में करवाया जो मोहल्ला तीजां वाली पहाडी नारनौल में जीर्णशीर्ण अवस्था में था लेकिन इस स्मारक के अब अवशेष भी शेष नही है |
चोर गुम्बद:
यह भवन एक चौरस चबूतरा पर एकल मंजिल तथा प्रत्येक चार कोणों पर मिनारें, कम गहराई का गुम्बद तथा कमान रूपी चिन्हों के साथ एक अफगान व्यक्ति जमालखान द्वारा नारनौल नगर के बाहरी स्थल पर शायद तुगलक काल में बनवाया गया था। काफी लम्बे समय तक उपेक्षापूर्ण स्थिति में रहने के कारण यह स्मारक लुटेरों व चोरों का अड्डा बन गया था जिसके कारण इसे यह वर्तमान नाम मिला। हाल ही में इसका जीर्णोद्धार किया गया है और वर्तमान में यह एक अच्छी स्थिति में है। इसके चारों तरफ वर्ष 1996-1997 में हरियाणा सरकार द्वारा सुभाष चन्द्र बोस की स्मृति में उनकी प्रतिमा लगाकर एक पार्क का निर्माण करवाया गया है।
जल महल
इसका निर्माण शाहकुलीखान द्वारा वर्ष 1590-91 में करवाया गया । आरम्भ में इसे खान सरोवर के नाम से जानाजाता था । यह एक चौरस 14 फिट गहरे जलाषय के मध्य में स्थित है । काफीवर्षों तक उपेक्षा के कारण तथा समय के साथ साथ इस जलाशय का पानी सूखगया और इसमें मिटटी भर गई जब कि यह भवन एक अच्छी अवस्था में है।नारनौल के तत्कालीन उपायुक्त श्री राजरूप फूलिया ने व्यक्तिगत रूप से इसप्रांगण की पुरानी भव्यता को पुनः कायम करने के लिये कार्य किया औरवर्तमान में इस जलाषय से मिटटी निकाली जा चुकी है तथा क्षेत्र में उचित रूपसे तार लगाये गये हैं और एक नलकूप की स्थापना करके अधिकांष स्थान को सुन्दर रूप दिया जा रहा है ।
शाह कुली खान का मकबरा:
इस मकबरे का निमार्ण सन् 1574-75 (हिजरी सम्वत् 982) में शाहकुली खान तत्कालीन गर्वनर नारनौल ने स्वयंअपने जीवनकाल में करवाया। यह मकबरा अष्ट कोणीय चबूतरे पर बना हुआ है। मकबरे की आठों साईड़ बराबर हैंऔर इसका मुख्य द्वार दक्षिण में है। मकबरे में 6 कब्रें हैं। मध्य कब्र के पास एक संगमरमर का अष्टकोणीय स्तम्भखड़ा है। यह एक छोटा मकबरा है लेकिन इसके
निर्माण, स्थापत्य एवं कला के हिसाब से यह एक सुन्दर नमूना है।यह पठान शैली का सुन्दर मकबरा नारनौल की शान में चार चांद लगाता है।
त्रिपोलिया :
शाह कुली खान ने इस भव्य द्वार को सन् 1588-89 (हिजरी सम्वत् 997) में बनवाया। बाग आराम-ए-कौशर कायह भव्य द्वार है। इसको त्रिपोलिया की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि इ
सके मध्य में एक विशाल द्वार है तथा दोअन्य द्वार इसके दोनों और बने हुए हैं। यह कहा जाता है कि इस इमारत में तलघर और सुरंगें बनी हुई हैं। यहनिर्माण नारनौल की समृद्धि एवं तत्कालीन कला के उत्कृष्ट नमूने को दर्शाता है। वर्तमान में संरक्षण एवं प्रबंध केअभाव में यह खंडहर होता जा रहा है |
तख़्त वाली बावली (बावड़ी अली जान):
इस बावड़ी का निर्माण बादशाहअकबर के काल में एक धनी व्यक्ति मिर्जा अलीजान द्वारा करवाया गया था। मिर्जा अलीजान की बावड़ी नारनौल केउत्तर पश्चिम में छोटा
बड़ा तालाब के पास स्थित है। यह बावड़ी एक बड़े परिसर का भाग है, जिसमें एक मसजिद, बावड़ी, फव्वारे, बगीचा व अन्य सुन्दर निर्माण कार्य किए हुए थे। इसका मुख्य भवन एक बड़ी मेहराब पर बनाहुआ है जिसके ऊपर एक बड़ा आठ स्तम्भों का तख्त बना हुआ है। इस तख्त की साज सज्जा चारों और से लालबलुवा पत्थर पर खुदाई करके की हुई है। इसके नीचे एक बालकोनी तथा ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ीयां बनी हुई हैं।तख्त बावड़ी दक्षिण में एक अष्ट कोणीय कुंए के साथ जुड़ी हुई है। तीन मंजील की बनी इस बावड़ी में तख्त के नीचेपत्थर पर उत्कीर्ण लेख में इसके निर्माण बारे फारसी भाषा में लिखा हुआ है। जिसमें इसके निर्माता का नाम मिर्जाअली
जान दर्शाया गया है।
खलील सागर में बाराहदरी:
यह सुन्दर बाराहदरी कृत्रिम झील खलील सागर के तट पर मिर्जा खलील द्वारा 16 वींशताब्दी में बनवाई गई थी। मिर्जा खलील को खान-ए-जामा का पद हासिल था । वर्तमान में इसका जल सूख चुकाहै और यह भवन जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है |
अदीनी मस्जिद
यह मस्जिद वर्तमान में मोहल्ला देवस्थान नारनौल मेंस्थित है इस पर एक शिला पर फारसी भाषा में उत्कीर्ण लेख में लिखा हुआ है कि इसका निर्माण वर्ष 1582-83 मेंख्वाजा दोस्त (आसफ ए
थानी द्वितीय आसफ जो कि बाद में मुगल सम्राट जहांगीर का ससुर बना) के द्वारा करवायागया था। वर्तमान में इसमें प्राथमिक पाठशाला चलाई जा रही है और इसकी प्रशासन द्वारा मरम्मत करवाई गई है।
राय बालमुकन्द का छत्ता:
यह एक काफी बडा रिहाइषी भवन नारनौल के निवासी राय बालमुकन्द नेबनवाया था जो कि सम्राट शाहजहाँ की सेवा में बतोर अधीक्षक (जागीर) तैनात थे इसका निर्माण द्यााहजहां केशासनकाल (1628 से 1658) में हुआ । यह एक पांच मंजिला इमारत है जिसकी तीन मंजिल भूतल के निचे हैं ।ऐसा माना जाता है कि इस भवन में दिल्ली जयपुर व महेन्द्रगढ जाने वाली
सुरंगें बनी हुई हैं लेकिन वर्तमान मेंभूतल से निचे एक मंजिल के इलावा बाकी नजर नही आता । इस रिहाइषी भवन के नजदीक ही मोती महल बनाहुआ है जो कि हवेली प्रांगण का ही हिस्सा है । यह दोनों भवन बडी उपेक्षापूर्ण स्थिति के कारण जीर्ण अवस्था में हैं ।यह भी कहा जाता है कि सम्राट अकबर के नोरत्नों में शामिल बीरबल का नारनौल से काफी नजदीक का रिश्ता थाजिसके कारण इसे आम तोर पर बीरबल का छत्ता भी कहा जाता है |
सराय राय बालमुकन्द:
इस सराय का निर्माण राय बालमुकन्द द्वारा 17वीं शताब्दी में करवाया गया था। उस कालमें मध्य पूर्व, ईरान, सिंध, बहावलपुर से दिल्ली के लिए कारवां व्यापारियों के मार्ग में नारनौल नगर स्थित होने के कारण यह नगर व्यापारिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था और यहां काफी संख्या में लोगों का अवागमनथा। इस कारण इस सराय का निर्माण जनप्रयोग हेतु करवाया गया था। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम केदौरान वर्ष 1857 में इस भवन ने स्वतंत्रता प्राप्ती हेतु देश प्रेमियों की बहुत सी गतिविधियां देखी हैं। इसका प्रयोगराव तुलाराम व नवाब झज्जर की सेना द्वारा उस संग्राम में एकत्रित होने के लिये भी किया गया था। इसे आधारबना कर ही इन स्वतंत्रता सेनानियों ने समीप के गांव नसीबपुर में ब्रिटिश सेना से युद्ध किया था । वर्ष 1858 से 1982 तक इस प्रांगण में न्यायालय कार्यरत रहे हैं। वर्ष 2000 में दुर्भाग्यवश जिला प्रशासन ने इस ऐतिहासिक इमारत को तुडवा दिया और इस इमारत का वर्तमान में मौके पर एक पूर्वी गेट ही विद्यमान है।
शोभा सरोवर:
यह जलाशय राय बालमुकन्द द्वारा 17 वीं शताब्दी में बनवाया गया था। उन दिनों पूरे वर्ष इसे पानी से भरा रखा जाताथा और इसके तट पर एक मंदिर का भी निर्माण किया गया था। वर्तमान में इस सरोवर में जल नही है।
छोटातलाब (बाला सागर):
तख्त बावली के नजदीक क्षेत्र में छोटा तालाब स्थित है। इसका निर्माण 17 वीं शताब्दी मेंकिया गया था। इस तालाब का पानी लुतफपुर व रसूलपुर के खेतों की तरफ से एक नाले द्वारा आता है। इस तालाबको आम लोगों द्वारा नहाने के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस तालाब के पास एक शिव मंदिर का निर्माण करवायागया था जिसमें लोग स्नान करके शिव पूजा किया करते थे।
बड़ा तालाब (जनक सागर):
इसका निर्माण 19 शताब्दी में करवाया गया था। इसका प्रयोग मुख्य रूप से नगरवासीनहाने व कपड़े धोने के लिए करते हैं इसमें एक बड़ा गऊ घाट भी है जिसका प्रयोग पशुओं को पानी पिलाने के लिएकिया जाता है। नारनौल नगर परिषद अब इसको एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर रही है।
अनूप तालाब:
इसका निर्माण 17 वीं शताब्दी में घने जंगलों के बीच में करवाया गया था। इस तालाब में आयातकारजलाशय और प्रत्येक तरफ मध्य में खंबे वाले दर्शक मण्डप बनवाये गए थे। यह तालाब बाग आराम-ए-कौशर केपास स्थित है। इसमें पानी की स्वच्छता के लिए एक अलग से जलाशय बनवाया गया था। वर्तमान में इसे आमजनता द्वारा स्नान व कपड़े धोने के प्रयोग में लाया जा रहा है |
मन्दिर मोड़ावाला महादेव:
नारनौल के बस स्टैण्ड केसमीप नारनौल-रेवाड़ी रोड़ पर नगर का प्रसिद्ध शिव मंदिर मोड़ावाला स्थित है। इस मंदिर में शिव परिवार केअतिरिक्त दूसरे देवी देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित की हुई हैं। मंदिर में भगवान शिव की एक खड़ी हुई मुद्रा मेंविशालकाय प्रतिमा है जिसकी शोभा देखते ही बनती है। बताया जाता है कि जहां पर यह मंदिर बना हुआ है वह एक कृषि भूमि थी तथा किसान को हल चलाते हुए भगवान शिव से पे्ररणा मिली कि यहां शिव मंदिर का निर्माण करवाओ। उसके बाद स्थानीय लोगों के सहयोग से यहां इस भव्य शिव मंदिर का निर्माण हुआ। इस मंदिर मेंप्रतिदिन सैकड़ों श्रृद्धालू भगवान शिव की पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं।
भगवान सूर्य नारायण मंदिरः
नगर के मध्य छत्ता राय बालमुकुंद के समीप भगवान सूर्य नारायण का मंदिर स्थितहै। 18वीं शताब्दी में जयपुर के सवाई राजा जयसिंह ने एक यज्ञ का आयोजन किया था उस समय शिलालेख सेज्ञात होता है कि द्वापर युग में वर्तमान नारनौल नगर का नाम नन्दी ग्राम था। सम्भवतः पूरे क्षेत्र में भगवान सूर्यदेव को समर्पित यह एक मात्र मंदिर है।